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यूपी,बिहार,झारखंड-अंड-भंड,अंड-भंड

Hindi Blogs Jagran Junction
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पुणे शहर से लौटा हूं। आईटी उद्योगों और शिक्षा संस्थानों के कारण पुणे तेज़ी से बदल रहा है। मुंबई का बुनियादी ढांचा चरमरा रहा है। रहने की सुविधाओं की तंगी और पुणे-मुंबई एक्सप्रेस-वे ने पुणे की तकदीर बदल दी है। उत्तर भारत के छात्रों ने भी यहां की अर्थव्यवस्था में योगदान दिया है। उड़ीसा,बंगाल,बिहार और यूपी के मज़दूरों के बल पर पुणे की इमारती तरक्की तेजी से हो रही है। महाराष्ट्र का पचास फीसदी हिस्सा शहरीकरण हो चला है। मुंबई के अलावा नागपुर, नाशिक, पुणे जैसे बड़े शहर उभर कर सामने आ रहे हैं। जो किसी भी मायने में मुंबई से कम नहीं है।

बिहार,झारखंड,उत्तर प्रदेश में पटना,रांची और लखनऊ के अलावा ऐसा कोई दूसरा शहर नहीं है,जहां बुनियादी ढांचे का विकास तेजी से हो रहा है। इन राजधानियों की हालत भी कम खराब नहीं है। शिक्षा,व्यापार,आईटी के केंद्र के रूप में इनकी पहचान अभी तक नहीं बन पाई है। नतीजा इन तीन राज्यों के विद्यार्थियों और मजदूरों दोनों को पलायन करना पड़ रहा है। पिछले बीस साल के ग्लोबलाइज़ेशन में उत्तर भारत बुरी तरह पिछड़ कर रह गया। अब बिहार औ यूपी का विकास दर राष्ट्रीय विकास दर से अधिक हुआ है लेकिन हम मौका चूक गए हैं। हमारे शहर सिर्फ शहर के नाम पर मकान बनाने के काम आ रहे हैं।

झारखंड में रांची के अलावा जमशेदपुर एक ऐसा शहर था जिसका पुणे या बंगलुरू जैसा चरित्र था। इस शहर के पास टाटा की फैक्ट्री से लेकर क्रिकेट का स्टेडियम भी है। लेकिन जमशेदपुर अब शहरों की रेस में पीछे छूट गया लगता है। जमशेदपुर की शिल्पा राव बालीवुड की दुनिया में अपनी आवाज़ से नाम कर रही हैं लेकिन जमशेदपुर अतीत का शहर बन गया है। लखनऊ में सुधार हुआ लेकिन क्या यह सुधार किसी आर्थिक विकास के काम आएगा, अभी साफ नहीं है। पटना की हालत बहुत अच्छी नहीं है। पूरे शहर में तीन मुख्य चौराहे हैं। डाकबंगला, बोरिंग रोड और अशोक राजपथ। हर तरफ जाम है।

बात पुणे की कर रहा था। बहुत दुख हुआ। हमारे शहरों ने दम तोड़ दिया और हमारे बच्चे अवसरों की तलाश में दूसरे शहरों में दम तोड़ रहे हैं। काश उत्तर भारत के पास भी कोई ऐसा शहर होता जहां पुणे, नाशिक और चंडीगढ़ से आकर लड़के पढ़ते। शिक्षा तो हमारी पूंजी रही है। पढ़ने में और पढ़ाने में। फिर भी आज यूपी,बिहार और झारखंड का एक भी कालेज दूसरे राज्यों के बच्चों को आकर्षित नहीं करता। बीएचयू, पटना यूनिवर्सिटी और इलाहाबाद यूनिवर्सिटी का इतिहास ही है। वतर्मान में भी यहां इतिहास की बातें होती हैं। बाकी किसी यूनिवर्सिटी की कोई पहचान नहीं है। इलाहाबाद के बच्चे दिल्ली मुंबई पढ़ने जा रहे हैं। गोरखपुर के पास आज की तारीख में क्या है। इतिहास है। यहां के लड़के कई राज्यों में जाकर धक्के खा रहे हैं। दिल्ली के आस-पास कई संस्थान खुल गए हैं। इन संस्थानों के मैनेजर रांची से लेकर गोरखपुर तक में होर्डिंग लगाते हैं, सेमिनार करते हैं ताकि ये बच्चे अपनी कमाई उनके यहां गंवा दें।

छात्रों के पास विकल्प नहीं है लेकिन हमें अब यह सोचना ही होगा कि आखिर कब तक हमारे ज़िले कलक्टर के लिए मुख्यालय का काम करते रहेंगे। उनका बुनियादी ढांचा क्यों नहीं बेहतर हो रहा है। वहां के कालेज और अस्पताल तीन नंबर के क्यों हैं। इन तथाकथित शहरों के लोगों को आगे आना होगा। अपने शहर की गुणवत्ता को लेकर आंदोलन करना होगा। किसी को सवाल तो करना ही होगा कि जब गोरखपुर यूनिवर्सिटी का नाम क्यों नहीं है, आखिर क्या कमी है कि इलाहाबाद यूनिवर्सिटी दिल्ली विश्वविद्यालय को टक्कर नहीं दे सकती। आईआईटी कानपुर और एक्सएलआरआई जमशेदपुर जब बन सकता है तो बाकी शहरों के कालेज क्यों नहीं नामी हो सकते।

शुरूआत कौन करेगा। वो युवा ही करेंगे जो ड्राफ्ट लेकर ट्रेन में सवार हो रहे हैं और घटिया किस्म के कमरों में रह रहे हैं। अपने घरों से बिछड़ कर बाहर के शहरों में औसत शिक्षा मगर रोज़गार के हिसाब से नामी शिक्षा हासिल कर रहे हैं। पुणे के एक बिल्डर ने कहा कि राज ठाकरे के कारण बिहार यूपी के मज़दूर भाग गए। उन्हें बुलाने के लिए एक लाख रुपये एडवांस के साथ अपने मैनेजर को भेजा। ऊंची इमारतों को बनाने का काम मराठी नहीं कर सकता। ये बिहार यूपी और उड़ीसा के ही गरीब लोग कर सकते हैं। सवाल पूछिये कि कहीं हमारी सामाजिक और राजनीतिक सोच की कमी तो हमें बर्बाद नहीं कर रही है। नहीं सोच सकते तो अपने बच्चे की एलआईसी पॉलिसी के साथ-साथ किसी पुणे, किसी दिल्ली या किसी चंडीगढ़ में एडमिशन कराने के लिए बचत खाता भी खोल लीजिए।
(यह लेख दैनिक जागरण के युवा अखबार आई-नैक्स्ट में छपा था)

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