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एक सुबह की आत्मकथा

Hindi Blogs Jagran Junction
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जितना कहता हूं,उतना ही अधूरा रह जाता है। जितना मिलता हूं,उतना ही अकेला हो जाता हूं। ऐसा क्यों होता है कि दिल्ली में रहना अक्सर याद दिलाता है कि अब चलना है वापस। जहां से आया था। दिल्ली एक्सप्रेस से। पर वो ट्रेन तो अब बंद हो चुकी है। क्या मेरी वापसी के लिए पुराने रास्ते इंतज़ार कर रहे होंगे? उन रास्तों को किसी और ने चौड़ा कर दिया होगा। जिनके लिए लौटने का मन करता है,वो अब दुनिया में नहीं हैं। जिनके साथ खेला,वो न जाने कहां हैं। सबके सब भटक गए हैं। तो क्या किसी से मिलने की बेकरारी है या फिर इस शहर में मन के उजड़ जाने के बाद अपना ही खरीदा घर किराये का मकान लगता है। ऐसा क्यों होता है कि किसी सुबह मन खराब हो जाता हैं। सामान बांधने का दिल करता है। बीबी बच्ची के कालेज और स्कूल जाने के बाद लगता है कि किसी वीराने में घिर गया हूं। क्या कोई लौट सकेगा कभी अपनी मां के गर्भ में और वहां से शून्य आकाश में। उन्नीस साल हो गए दिल्ली में। जो मिला वही छूटता चला गया। दरअसल सहेजने आया ही नहीं था,जो सहेज सकूं। हर दिन गंवाने का अहसास गहराता है। लौट कर आता हूं तो ख्याल आता है। क्यों और कब तक इस शहर में बेदिल हो घूमता रहूंगा। इस शहर में जबड़ों को मुसकुराने की कसरत क्यों करनी पड़ती है? सारी बातें पीठ के पीछे ही क्यों होती है? सोचता हूं किसके लिए मेरी बूढ़ी मां गांव में घर की चारदीवारी बना रही है। अपने बेटों के लिए घर को महफूज़ कर रही है। मैं कल की शाम एक फाइव स्टार होटल में था। बस फिर से दिल टूट गया। इतनी चमकदार रौशनी,महफिल और मेरी मां अकेली। वो कहती है कि गांव से अच्छा कुछ नहीं। तुम्हारी दिल्ली में दिल नहीं लगता। किसी को भोजपुरी आती नहीं है। यहां तुम्हारी ज़मीन है। बाप दादाओं की है। क्या मां ही पुरखों की सारी कसमें पूरी करती रहेगी? और हम? क्या हम उन पुरखों के नहीं हैं। नौकरी का चक्र ऐसा क्यों हैं कि सारे रिश्ते उसमें फंस कर टूटते ही जाते हैं। पेशेवर होना अब एक अपराधी होना लगता है। छु्ट्टी लेकर गांव जाने का मतलब नहीं। यहां वहां के बीच आना-जाना हल नहीं है। दिल्ली कब तक मुझे बसा कर उजाड़ती रहेगी। यहां बादशाह टिका न आवाम। सब टिके रहने के भ्रम में जी रहे हैं। मेरी तरह कहीं से आए प्रवासी मज़दूर मकान खरीद कर सोचते हैं कि वो दिल्ली में बस रहे हैं।

Credit Ravish Kumar Ndtv

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